कश्मीर के लोग उतने ही मधुर हैं जितने वहां के सेब। जब आप कश्मीर जाएंगे, तब इसे स्वयं अनुभव कर पाएंगे। प्रकृति ने कश्मीर पर अनमोल खजाने लुटाकर इसे अद्वितीय सौंदर्य से नवाजा है। यही वजह है कि कश्मीर को धरती का स्वर्ग कहा जाता है। एक ऐसा स्वर्ग जहां मधुर फल और मधुर लोग मिलकर इसे पूर्णता देते हैं। प्राकृतिक सौंदर्य के कारण कश्मीर में खेती के साथ-साथ पर्यटन भी आजीविका का प्रमुख स्रोत बन गया है। पहाड़ों और जंगलों के बीच जो थोड़ी-बहुत जमीन है, उसी पर लोग खेती करते हैं। साथ ही लकड़ी की वस्तुएं बनाते हैं, भेड़-बकरियां पालते हैं। यहां के मेहनती लोग सीमित संसाधनों और सीमित आय के बावजूद संतोष के साथ सादगी भरा जीवन जीना जानते हैं।
पिछले कई दशकों से कश्मीर घाटी एक विवादित क्षेत्र बनी हुई है, जो तीन हिस्सों में बंटी है। वर्तमान में इसका लगभग 45.62% हिस्सा भारत के नियंत्रण में है, 35.15% पाकिस्तान के नियंत्रण में और 19.23% चीन के अधीन। वर्तमान केंद्र शासित प्रदेश जम्मू और कश्मीर का कुल क्षेत्रफल लगभग 42,241 वर्ग किलोमीटर है, जिसमें कश्मीर घाटी का क्षेत्रफल लगभग 15,948 वर्ग किलोमीटर है।
कश्मीर की 2025 की अनुमानित जनसंख्या लगभग 80 लाख है, यानी करीब 16 लाख परिवार। खेती योग्य भूमि मात्र 3.38 लाख हेक्टेयर है। प्रति परिवार औसतन 0.21 हेक्टेयर (लगभग 2 कनाल) और प्रति व्यक्ति केवल 0.04 हेक्टेयर भूमि उपलब्ध है, जिससे उनकी जीविका की सीमाएं स्पष्ट होती हैं। कश्मीर में सेब, अखरोट, बादाम, खुबानी, चेरी जैसे फल, और चावल, मक्का, दालें, सरसों जैसी फसलें उगाई जाती हैं। ‘सेब का कटोरा’ कहे जाने वाले इस क्षेत्र में लगभग आधी खेती योग्य भूमि यानी 1.62 लाख हेक्टेयर पर सेब की खेती होती है और 20 लाख टन, भारत का 75% सेब उगाया जाता है। इसके अलावा केसर, शहद, मशरूम और वनों पर आधारित लकड़ी, हस्तशिल्प, क्रिकेट बैट और जड़ी-बूटियों का उत्पादन होता है। यह क्षेत्र पश्मीना शॉल और कालीनों के लिए भी विश्वप्रसिद्ध है। सरकारी नीतियों ने पूरे देश में खेती और उससे जुड़े रोजगार को घाटे का सौदा बना दिया है। कश्मीर भी इससे अछूता नहीं है। बल्कि वहां प्रति व्यक्ति कृषि भूमि अन्य राज्यों की तुलना में बहुत कम है, जिससे उनकी आर्थिक स्थिति और भी कठिन हो जाती है।
पर्यटन कश्मीर में रोजगार का एक प्रमुख स्रोत है। पर्यटकों के लिए आवास, भोजन, परिवहन और सांस्कृतिक गतिविधियों से लोगों को रोज़गार मिलता है। प्राकृतिक दृष्टि से अनुकूल मौसम में लगभग 7–8 महीने पर्यटन से अच्छा खासा रोज़गार सृजित होता है। यह रोजगार पूरी तरह मौसम, पर्यावरणीय परिस्थितियों और कानून-व्यवस्था की स्थिरता पर निर्भर करता है। कश्मीर आर्थिक दृष्टि से एक मध्यम आय वाला प्रदेश है। रोजगार के साधन सीमित हैं। प्रति व्यक्ति वार्षिक आय राष्ट्रीय औसत से बहुत कम है। राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों में इसकी रैंकिंग 25 से 28 वें स्थान के बीच आती है। ये आंकड़े दर्शाते हैं कि खेती और पर्यटन कश्मीरी लोगों की आजीविका की जीवनरेखा है। जब पर्यटन प्रभावित होता है, तो उनकी जीवनरेखा भी मानो बर्फ की तरह जम जाती है।
ऐसे में यह सहज समझदारी है कि कोई भी समाज आतंकवाद का समर्थन करके अपने जीवन को संकट में नहीं डालना चाहेगा। कश्मीरी जनता की प्राथमिकता भी शांतिपूर्ण माहौल बनाए रखना और पर्यटन के लिए अनुकूल परिस्थितियां बनाए रखना ही रही है।
दुर्भाग्य से पूरे कश्मीर को आतंकवाद से जोड़कर देखा जाने लगा है। पूरे देश में यह दुष्प्रचार फैलाया जाता है कि वहां आतंकवादी पलते और बढ़ते हैं। कुछ मीडिया संस्थान इस दुष्प्रचार को व्यवसाय बना चुके हैं। इसकी सबसे बड़ी कीमत कश्मीर की जनता को चुकानी पड़ती है क्योंकि इससे पर्यटन प्रभावित होता है और उनकी आमदनी कम हो जाती है।
ऐसा नहीं है कि कश्मीर में आतंकी गतिविधियां नहीं होतीं। हर समाज में कुछ कट्टरपंथी तत्व होते हैं, जो अपने आग्रह को समाज पर थोपते हैं और हिंसा का रास्ता अपनाते हैं। कश्मीर में भी लगभग 3-4 प्रतिशत ऐसे तत्व मौजूद हैं। लेकिन कश्मीर के 95 प्रतिशत से अधिक लोग हिंसा का समर्थन नहीं करते। उन्होंने हर चुनाव में डर की दीवारें तोड़कर और ‘लोगों की सरकार’ बनाने में सक्रिय भूमिका निभाकर यह साबित किया है। कश्मीर में एक वर्ग मानता है कि वे दो देशों के सत्ता संघर्ष के बीच पिस रहे हैं। आतंकवादी कार्रवाई से निपटने के लिए बड़ी संख्या में तैनात सैनिकों और सुरक्षा प्रतिबंधों ने उनके जीवन को जकड़ लिया है। जम्मू और कश्मीर में लगभग 4 लाख सैनिक तैनात हैं। उन्हें लगता है कि यह उनकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता के खिलाफ है, जो कि उनका संवैधानिक अधिकार है।
तथाकथित आधुनिक विकास के कारण तापमान वृद्धि, जलवायु परिवर्तन और अन्य पर्यावरणीय संकट गहराते जा रहे हैं। ग्लेशियरों का पिघलना, बाढ़ और प्राकृतिक आपदाएं मानव जीवन को संकट में डाल रही हैं। साथ ही, स्थानीय पारंपरिक खेती और फसलें भी प्रभावित हो रही हैं। पिछले 30 सालों में कश्मीर के ग्लेशियर 20 प्रतिशत सिकुड़ गए हैं। कश्मीर के लोग इस स्वर्ग भूमि को नुकसान पहुंचाने वाले विकास से चिंतित हैं।
अनुच्छेद 370 के कुछ प्रावधान हटाए जाने के बाद कश्मीरी लोगों के मन में यह डर है कि कहीं बाहरी लोगों को संपत्ति खरीदने का अधिकार देकर उनके संपत्ति अधिकार और रोजगार न छीन लिए जाएं। विकास के नाम पर पूरे देश में किसानों, आदिवासियों से उनके जल, जंगल, जमीन और खनिज आदि संसाधन छीनकर चंद उद्योगपतियों के हवाले किए जा रहे हैं। पर्यटन क्षेत्र भी बड़े उद्योग घरानों को सौंपा जा रहा है। कश्मीर में विकास योजनाओं के लिए भूमि आवंटन में न तो न्यायसंगत प्रक्रिया अपनाई जाती है, और न ही उनकी कोई सुनवाई होती है। उन्हें लगता है कि ‘कश्मीरी’ होने के कारण उनके साथ अन्याय होता है। लेकिन यह दर्द केवल कश्मीर का नहीं है, बल्कि पूरे देश के किसानों का है। फर्क सिर्फ इतना है कि अन्य जगहों पर किसान संघर्ष करके कहीं-कहीं अपना हक पा लेते हैं, जबकि कश्मीरी लोग इस डर से संघर्ष नहीं कर पाते कि कहीं उन्हें आतंकवादी बनाकर मार न दिया जाए।
भारत का 2025-26 का वार्षिक रक्षा बजट 6.81 लाख करोड़ रुपये है, जबकि कृषि बजट 1.27 लाख करोड़ रुपये, शिक्षा बजट 1.29 लाख करोड़ रुपये और स्वास्थ्य बजट 99.86 हजार करोड़ रुपये है। रक्षा पर कृषि की तुलना में पांच गुना से अधिक खर्च किया जाता है। सरकार का लक्ष्य है कि 2047 तक यह रक्षा खर्च 31.7 लाख करोड़ रुपये तक पहुंचाया जाए। पाकिस्तान की स्थिति भी अलग नहीं है। दोनों देश सैन्य ताकत बढ़ाकर एक-दूसरे को सबक सिखाने के लिए सैन्य बजट बढ़ाते जा रहे हैं।
पाकिस्तान को यह समझना होगा कि आतंकी गतिविधियां करके निरपराध लोगों की जान लेकर आखिर वह क्या हासिल करना चाहता है? सैन्य कार्रवाई में भी दोनों तरफ के निरपराध लोग बलि चढ़ते हैं, लेकिन इससे कोई स्थायी समाधान नहीं निकलता।
कश्मीर के लोग चाहते हैं कि संवाद के माध्यम से इसका स्थायी समाधान खोजा जाना चाहिए। वे अपनी अगली पीढ़ी को, अपने निरपराध बच्चों को हिंसा का शिकार नहीं बनाना चाहते, चाहे वह आतंकी द्वारा की गई हो या सेना द्वारा। वे स्थायी समाधान की मांग करते हैं। कश्मीर की जनता भी शांति और अमन चाहती है।
कश्मीर केवल एक भूभाग नहीं, बल्कि वहां बसने वाले लोगों के जीवन, सपनों और संघर्षों की धरती है। यह एक ऐसा समाज है जो न्याय, शांति और सम्मान की तलाश में है। आज जरूरत इस बात की है कि हम कश्मीर को केवल सुरक्षा की नजर से न देखें, बल्कि मानवता की नजर से देखें। वहां की आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक जड़ों को समझें, और खेती व पर्यटन जैसे उनके पारंपरिक व्यवसायों को संरक्षण दें।
संवाद, सम्मान और न्याय ही वह रास्ता है जिससे कश्मीर को न केवल सुरक्षित, बल्कि समृद्ध और सच्चे अर्थों में ‘धरती का स्वर्ग’ बनाया जा सकता है। कश्मीरी लोगों के जीवन को खुशहाल, स्वतंत्र और गरिमामय बनाकर ही यह संभव है।
लेखक:- विवेकानंद माथने
vivekanandpm.india@gmail.com
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